प्रवास पर गए पति को पत्नी का औपचारिक पत्र
डी 114, लाजपत नगर,
नई दिल्ली ।
दिनांक 2 अगस्त,……
मेरे प्रिय प्रियतुम,
आपकी प्रतीक्षा करते-करते आँखें थक गई । यह छ: माह की लंबी अवधि शरीर को खाने लगी है। आपका बिछोह मुझसे सहा नहीं जाता । अब तो ‘भारत दर्शन’ की लालसा को त्याग कर घर वापस लौट आओ । आपकी नन्हीं मुन्नी कविता पिता की राह में सारा दिन द्वार पर खड़ी रहती है । जब कभी मेरी आँखों में अश्रु देखती है तो उन्हें अपने नन्हें हाथों से पोंछकर और मंडेर पर बैठे किसी कौए को दिखाकर कहती है, ‘मम्मी, तुम उदास मत होओ, आज पिता जी जरूर आ जाएँगे।’ उसकी बात सच निकलती है, पर पत्र के रूप में आपके स्थान पर डाकिया यात्रा के रोचक संस्मरणों से भरा पत्र दे जाता है।
आप स्वस्थ हैं । आपका मन अतीत के खंडहरों में खो गया है । आपके नेता में भारतीय स्थली की सौम्यता समा गई है । यह पढ़कर मेरा कुछ समय सुख-शांति में बीत जाता है। जैसे ही मन एकाकी होता है, चंचल पवन हिलोर लेकर मेरे गात को झकझोरता है, तो आपकी याद सताने लगती है । उस समय मेरी हृदय तंत्री झंकृत हो उठती है। विगत स्मतियों का तांता-सा बँध जाता है। मासिक पत्र-पत्रिकाओं के पृष्ठ पर पृष्ठ उलटती चली जाती हूँ। उन पर अंकित अक्षर मेरे नेत्रों के सम्मुख धूमिल होते चले जाते हैं और स्मृति मात्र रह जाती है केवल आपकी । दिन भी न जाने विधाता ने कितने लंबे कर दिए हैं, कटने में ही नहीं आते । कविता के साथ कुछ क्षण अवश्य हास-परिहास में बीत जाते । उसके छोटे से मस्तिष्क में भी आप ही की तस्वीर बसी हुई है । वह भी उन क्षणों में आप ही की बातें ले बैठती है और जब पछती है कि पिता जी कब आएँगे मम्मी? तब मेरे नेत्र शून्यता की ओर उठ जाते हैं और हृदय से एक विचित्र-सी टीस निकल जाती है। मैं उस मासूम बालिका के आगे निरुत्तर-सी हो जाती हैं। पिछली रात्रि को मैंने एक स्वप्न देखा, आप मेरे सिरहाने खड़े हुए केशों पर हाथ फेर रहे हैं और जैसे ही आपके सांसों की गरमी मेरे मुख की ओर बढ़ी वैसे ही मैं हडबडाकर उठ बैठी। स्वीच ऑन कर देखा । वहाँ पर आपका चिह्न मात्र भी न था। नन्हीं कविता मुस्कराती हुई मेरे पास लेटी हुई थी । ओट, कैसा विचित्र सपना था, विहान वेला का? सुना है कि इस समय के स्वप्न सच्चे हो जाते हैं। काश! मेरा भी स्वप्न सच्चा हो पाता।
मेरे निष्ठुर प्रियतुम ! आपके बिना मुझे अब कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा है । आपकी बिटिया को जवाब देते-देते मैं थक गई हैं। पत्र के उत्तर में स्वयं ही दर्शन दीजिए ।
कविता आपको नमस्ते कहती है ।
आपकी दासी
अर्चना