प्रेमी की ओर से प्रणय-पत्र
16, प्रिंस होटल,
मसूरी।
दिनांक 15 जून, …
मेरे हृदय की रानी,
सस्नेह नमस्कार ।
अत्र कुशलं तत्रास्तु । अभी जयपुर से यहाँ आए दो दिन ही बीते हैं, पर अनुभव करता हूँ, दो वर्ष बीत गए । मसूरी की इस रम्य स्थली और सुखद शीतलता से तो जयपुर की गर्मी ही कहीं भली थी कि भूले-भटके कभी तुम्हारी सूरत तो दिखाई दे जाती थी।
इस ग्रीष्मावकाश में तुम मसूरी आ रही हो, इससे अवगत होकर ही मैंने यहाँ आने का कार्यक्रम बनाया था । किंतु मजे की बात यह हुई कि मैं तुमसे पहले ही यहाँ पहुँच गया । यहाँ मौसम वास्तव में तुम्हारे योग्य है । चंद्र ज्योत्स्ना में तुम्हारी स्मृति बहुत सताती रहती है । इस उन्मादिनी प्राकृतिक शोभा में तुम्हारी कमी मुझे बहुत खल रही है।
कजरारे और श्वेत मेघों का समूह यहाँ नित्य नया शृंगार कराते हैं । इनमें विशेष जादू-सा है । ये हमारे कपोलों को स्पर्श करते हुए रुई के गोलों के समान लगते हैं। कभी ये अपने आँचल में सारी मसूरी को ढक लेते हैं और दूसरे ही क्षण ऊपर की ओर उड़ते चले जाते हैं । यह दृश्य देखने योग्य है।
यहाँ का वातावरण बड़ा ही रंगीला है। सरिता भी रमेश के साथ आई हुई है । कल मेरी चाय उन्हीं के साथ थी। दोनों तुम्हारे विषय में पूछ रहे थे, क्या उत्तर देता ? सो टाल गया ।
बस, अब यही इच्छा है कि पत्र के उत्तर के रूप में तुम्हें ही देखें। यहाँ के जादू भरे बादल तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं, यहाँ की चंद्र- ज्योत्स्ना तुम्हारे बिना फीकी है और स्केटिंग हॉल तुम्हारे बिना बेरौनक-सा लगता है। ये सब मिलकर तुम्हें आमंत्रित कर रहे हैं । शीघ्र आना, पत्र से पूर्व ।
दर्शनों के लिए उत्कंठित ।
केवल तुम्हारा ही,
सत्येंद्र