विदेश में पढ़ने गए पुत्र को कुसंगति से बचने के संबंध में पिता का पत्र
कोलकाता ।
दिनांक 12 फरवरी,
प्रिय रंजन,
चिरंजीव रहो !
अत्र कुशलं तत्रास्तु । आज ही तुम्हारे अभिन्न मित्र सुदेश का पत्र मिला । पढ़कर के मन अत्यंत व्याकुल हुआ कि तुम अपनी शिक्षा के प्रति उदासीन हो । मुझे तुमसे स्वप्न में भी ऐसी आशा न थी ।
वत्स। न जाने किस आशा से मैंने तुम्हें विदेश में उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेजा था और तुमने जलयान पर पैर रखते ही वचन दिया था कि मैं अपनी पढाई दत्तचित होकर करूँगा और पिशाचनी विलासिता को पास न फटकने दूँगा । क्या इन वचनों को बिल्कुल ही भुला बैठे हो ? यह मैं भली-भाँति जानता हूँ कि इसमें तुम्हारा ही दोष नहीं, विदेश की हवा लग ही जाया करती है । फिर भी, तुम इस कुसंगति को छोड़कर संयमी बनकर अपनी शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए और सदैव अपने सामने इस बात को रखना चाहिए कि मैं यहाँ पर अपने देश तथा अपने माता-पिता से इतनी दूर किस कार्यवश आया हूँ और असफल रहा तो मैं किस प्रकार मुख दिखा सकूँगा ?
मुझे आशा है कि तुम पाश्चात्य सभ्यता की विलासप्रियता को त्यागकर अपनी शिक्षा की कमी को पूरा कर लोगे । विलासप्रियता मनुष्य को समूल नष्ट कर देती है । कुसंगति का परित्याग करने से ही इसका पीछा छूट सकेगा ।
अपव्यय जौक के समान है, जिसे यह चिमट जाती है, उसको दर-दर की ठोकरें खिला देती है । इससे बचकर ही रहना । और अधिक क्या लिख, तुम स्वयं ही समझदार हो ? कोई विशेष बात हो तो लिखना । तुम्हारी माता तुम्हें आशीष देती हैं।
पत्रोत्तर की प्रतीक्षा में ।
तुम्हारा पिता,
राजीव कुमार